मीराबाई – श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका थी | अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को पाने के लिए अपना राजसी वैभव त्याग दिया था | श्रीकृष्ण को ही अपना पति कहती थी और लोक – लाज खोकर कृष्ण के प्रेम में लीं रहती थी और सोलहवी शताब्दी की एक महान कवयित्री थी |

विषय-सूची
मीराबाई का जीवन परिचय – Biography of Mirabai in Hindi
नाम | मीराबाई |
जन्म | सन् 1498 ई० |
जन्म – स्थान | चौकड़ी (मेवाड़), राजस्थान |
पिता | रत्नसिंह |
माता | वीर कुमारी (इनकी माता के नाम के सम्बन्ध में अनेक मत है|) |
पति | भोजराज |
गुरु | रविदास |
मृत्यु | सन् 1546 ई० |
भाषा | ब्रजभाषा |
शिक्षा | अनेक भाषाओ का ज्ञान था | |
रचनाएँ | गीता – गोविन्द की टीका, राग – गोविन्द, नरसी जी का मायका, राग – सोरठ के पद, गरबा – गीत, मीरा बाई की मलार, राग – विहाग तथा फुटकर पद |
जीवन – परिचय
जोधपुर के संस्थापक राव जोधा जी की प्रपौत्री और भगवान कृष्ण के प्रेम में दीवानी मीराबाई का जन्म राजस्थान के चौकड़ी नामक ग्राम में सन् 1498 ई० में हुआ था | बचपन में ही उनकी माता का निधन हो गया था | राव रत्नसिंह की इकलौती पुत्री होने के कारण मीरा का बचपन लाड़ – प्यार में बीता | प्रारम्भिक शिक्षा भी उन्होंने अपने अपने दादाजी के पास रहकर ही प्राप्त की थी | राव दूदा जी बड़े ही धार्मिक एवं उदार प्रवृत्ति के थे, जिनका प्रभाव मीरा के जीवन पर पड़ा था |
आठ वर्ष की मीरा ने कब श्रीकृष्ण को पति रुप में स्वीकार लिया, यह बात कोई नहीं जान सका | चित्तौड़ के महाराजा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से मीरा का विवाह हुआ था | विवाह के बाद भी मीरा की श्री कृष्ण – भक्ति में कोई अन्तर नहीं आया | विवाह के कुछ वर्ष बाद ही मीरा विधावा हो गई |
अब तो उनका रासा समय श्री कृष्णा भक्ति में बीतने लगा | वह श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर उनके विरह में पद गाती, साधु – सन्तो के साथ कीर्तन तथा नृत्य करती थी | साधु – सन्तो के सत्संग ने राणा को और भी असन्तुष्ट कर दिया | उन्होंने मीरा को मार डालने का कई बार प्रयास किया |
अन्त में राणा के दुर्व्यवहार से दु:खी होकर मीरा वृन्दावन चली गई | उनकी कीर्ति से प्रभावित होकर राणा ने अपनी भूल पर पश्चात्ताप किया, और उन्हें वापस बुलाने के लिए सन्देश भेजे, किन्तु मीरा सांसारिक बन्धनों को छोड़ चुकी थी | मीराबाई स्वरचित पद गाते – गाते श्रीकृष्ण की मूर्ती में समा गई | मीराबाई की मृत्यु द्वारका में सन् 1546 ई० के आस – पास हुई थी |
मीराबाई की रचनाएँ |
मीरा की रचनाओं में उनके ह्रदय की विह्वलता देखने को मिलती है | उनके नाम से सात – आठ कृतियों का उल्लेख मिलता है –
- गीता – गोविन्द की टीका.
- राग – गोविन्द
- नरसी जी का मायका
- राग – सोरठ के पद
- गरबा – गीत
- मीरा बाई की मलार
- राग – विहाग तथा फुटकर पद
उनकी एकमात्र रचना ‘मीरा पदावली‘ है | यही उनकी प्रसिद्धी का आधार तथा महत्वपूर्ण कृति है |
मीराबाई की भाषा | Mirabai Ki Bhasha
मीरा की भाषा राजस्थानी व ब्रजभाषा मुख्य रूप से है | किन्तु पदों की रचना ब्रजभाषा में की गई है | उनकी कुछ पदों में भोजपुरी भी शामिल है |
शैली
मीरा ने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है | उनके पदो में गेयता है |
नोट:- अलंकार – मीराबाई की रचना में अधितर उपमा, रूपक, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा आदि अलकार को सर्वाधिक रूप से देखा जा सकता है |
साहित्य स्थान
मीरा ने अपने हृदय व्याप्त वेदना और पीड़ा को बड़े ही मर्मिक रुप से व्यक्त किया है | मीरा ने इस करुणा को कल्पना के रंगों से सजाने का ही प्रयास नहीं किया, वरन उनके चित्र आँसुओ से धुलकर इतने पवित्र हो गए है कि सहज ही मन मोह लेते है |
मीराबाई के पद | Mirabai Ke Pad
(1)
हरि आप हरो जन री भीर।
द्रोपदी री लाज राखी, आप बढ़ायों चीर।
भगत कारण रूप नरहरि, धर्यो आप सरीर।
बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुण्जर पीर।
दासी मीराँ लाल गिरधर, हरो म्हारी भीर।।
(2)
स्याम म्हाने चाकर राखो जी,
गिरधारी लाला म्हाँने चाकर राखोजी।
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।
बिन्दरावन री कुंज गली में , गोविन्द लीला गास्यूँ।
चाकरी में दरसन पास्यूँ, सुमरन पास्यूँ खरची।
भाव भगती जागीरी पास्यूँ , तीनूं बाताँ सरसी।
मोर मुगट पीताम्बर सौहे , गल वैजन्ती माला।
बिन्दरावन में धेनु चरावे , मोहन मुरली वाला।
ऊँचा ऊँचा महल बणावं बिच बिच राखूँ बारी।
साँवरिया रा दरसण पास्यूँ ,पहर कुसुम्बी साड़ी।
आधी रात प्रभु दरसण ,दीज्यो जमनाजी रे तीरा।
मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर, हिवड़ो घणो अधीराँ।।
मीराबाई का साहित्यिक परिचय
साहित्यिक परिचय – ‘नरसी जी का मायरा’ में गुजरात के प्रसिद्धि भक्त नरसी मेहता की प्रशंसा की गई है | मीरा की अन्य कृतियों को स्वतन्त्र रचना नहीं मन जाता | ‘फुटकर पदों’ में सभी रागों के पद मिलते है | उनकी एकमात्र रचना ‘मीरा पदावली’ है | यही उनकी प्रसिद्धि का आधार तथा महत्वपूर्ण कृति है |
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